विभाजन का दर्द: जहां आजादी का जश्न मनाना चाहिए था, वहां दोस्त और सहयोगी ही लूटने-पीटने और घर फूंकने में लगे हुए थे

Aug 17, 2021 - 09:31
Aug 17, 2021 - 09:38
विभाजन का दर्द: जहां आजादी का जश्न मनाना चाहिए था, वहां दोस्त और सहयोगी ही लूटने-पीटने और घर फूंकने में लगे हुए थे
नफरत और हिंसा की वजह से लाखों बहन और भाइयों को विस्थापित होना पड़ा। उन्हें अपनी जान तक गंवानी पड़ी थी।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शनिवार को घोषणा की कि अब 14 अगस्त ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ के तौर पर मनाया जाएगा। उन्होंने कहा कि देश बंटवारे के दर्द को कभी भुलाया नहीं जा सकता। नफरत और हिंसा की वजह से हमारे लाखों बहन और भाइयों को विस्थापित होना पड़ा। उन्हें अपनी जान तक गंवानी पड़ी थी।

इसलिए उन लोगों के संघर्ष और बलिदान को याद करने के लिए यह शुरुआत की जा रही है। इसलिए दैनिक भास्कर ने भरतपुर में रह रहे ऐसे विस्थापित परिवारों के 3 बुजुर्गों से देश के बंटवारे के दर्द को जाना जिन्होंने वह कभी न भूलने वाला मंजर अपनी आंखों से देखा था।

हमारी ही आंखों के सामने दंगाइयों ने हमारे घर जला दिए : गोवर्धन

91 वर्षीय सरदार गोवर्धन सिंह मग्गो को आज भी विभाजन और विस्थापन का दर्द सालता है। वे अगस्त,1947 को याद करते हुए कहते हैं कि वो सावन का महीना था। चारों ओर हरियाली थी। लेकिन मौत के बादल छाए हुए थे। हवा में डर समाया था। जहां आजादी का पहला जश्न मनाना चाहिए था। वहां अपने दोस्त और सहयोगी ही लूटने, पीटने और आगजनी करने में जुटे थे। संपत्ति बचाना तो दूर जान बचाना मुश्किल था। मैं 16 साल का था जब फालिया तहसील के हरिया गांव में हमारा घर/खेती थी। दंगाइयों के कारण हिंदू बहुल गांव खाली हो रहे थे। हमने भी हिंदुस्तान में रहने का फैसला कर लिया था। लेकिन फंस गए। दीपावली बाद जैसे-तैसे कुरुक्षेत्र पहुंच पाए। एक रिश्तेदार सीताराम लांबा हमें भरतपुर ले लाए। पलायन के दौरान कितनी लाशें और जले हुए घर देखे उसे मत पूछिए। लुटे-पिटे और आंखों में बर्बादी के आंसू लिए हम भरतपुर आ गए। तब सरकार ने हमें कोई क्षतिपूर्ति राशि भी नहीं दी।

कपड़ा कारोबार कई प्रांतों में था, विस्थापन में रोटी को मोहताज हुए

बी-नारायण गेट पर रहने वाली 86 वर्षीय शीलादेवी की याददाश्त हालांकि उम्र के साथ कमजोर हा़े गई है। लेकिन, सात दशक बाद भी उन्हें घर का पता चूकनावाली, चक नंबर 13, तहसील फालिया, जिला गुजरात, प्रांत पंजाब, पाकिस्तान कंठस्थ है। विभाजन की विभीषिका में क्या खोया और कितने कष्ट सहे। इस सवाल पर शीला देवी चुप हा़े गई। गहरी सांस लेकर बाेली- सब कुछ अपनी आंखों के सामने लुटते, जलते और बर्बाद होते देखा।

मौत के साये में जान बचाकर हिंदुस्तान भागे। कुछ पता नहीं था कि कहां जाएंगे। कैप्टन बुधासिंह जी मेरे ससुर के संबंधी थे। इसलिए भरतपुर आ गए। जान इसलिए बची क्योंकि हम दंगों की शुरुआत यानि 31 जुलाई, 1947 को ही फ्रंटियर मेल से भरतपुर आ गए थे। हमारा कपड़ों का काफी अच्छा कारोबार था। यहां आकर दाने-दाने के लिए मोहताज हा़े गए। मेहनत और संघर्ष किया तब जाकर जिंदगी पटरी पर आई। हमें क्षतिपूर्ति राशि नहीं मिली।

रावलपिंडी से लेकर भरतपुर तक कितनी लाशें देखीं, पूछिए मत

अटलबंध निवासी राजेंद्र स्याल कहते हैं कि देश बंटवारे के समय मैं 10 साल का था। चौथी क्लास में पढ़ता था। हम रावलपिंडी में रहते थे। होली के बाद ही दंगों की ललाई फिज़ां में घुल गई थी। मेरे पिताजी मलिक चंद जी गांधी/नेहरू के बयानों से तसल्ली दिलाते थे कि कुछ नहीं हाेगा। हमारे रिश्तेदार रामलुभाया जी ने हमसे कहा था कि वक्त रहते हिंदुस्तान निकल चलाे। लेकिन, हमारे पिताजी नहीं माने। जुलाई आते-आते दंगों की आग भड़कने लगी।

बलवाई धर्म बदलने अथवा काट देने की धमकी देते। पिताजी ने तय किया कि मरना ही है तो फिर धर्म क्यों बदलें। वहां से सितंबर में चले और तमाम जगह गिरते-पड़ते अक्टूबर में भरतपुर पहुंचे। मुझे आज भी याद है उस दिन दशहरा था और जुलूस निकल रहा था। रावलपिंडी में हमारे पास प्रताप अखबार की एजेंसी थी। यही काम हमने यहां आकर शुरू किया। साइकिल उस समय हमारे लिए बड़ी चीज थी। कई साल तक सिर पर रखकर अखबार बांटे। लेकिन सरकार ने हमारी कभी सुध नहीं ली।